कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, जनवरी 12, 2018

रात थी पूस की....


पुराने खण्डहर में
तिरपाल डाल कर
बैठे हुए लोग

करते थे कुछ बतकही
कुछ अनकही
संझा घिर आई

पूस का महीना
काटनी थी रात लम्बी
उठे कुछ लोग......
लाए ढूंढकर....
मोटी पतली लकड़ियां
जलाई आग....
इस पुराने खण्डहर में
मिल गई कुछ
टूटी खाट....
लाकर डाल दिया
आग में और
बना दिया धूनी को
धधकता अलाव...
रात थी पूस की
पर लग रही थी
बैसाख सी....
पड़ाव किया था...
गुजारने के लिए रात
और करनी थी प्रतीक्षा
सुबह की... 
हमने बुझने नही दिया अलाव
काट ली रात
हंसते गाते....

6 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीया / आदरणीय रचनाकार

    आपके सृजनशील सहयोग ने हमें आल्हादित किया है। इस कार्यक्रम में चार चाँद लगाने के लिए आपका तहे दिल से आभार।

    हमें पिछले गुरूवार (11 जनवरी 2018 ) को दिए गए बिषय "अलाव" पर आपकी ओर से अपेक्षित सहयोग एवं समर्थन मिला है।

    आपकी रचना हमें प्राप्त हो चुकी है जोकि संपादक-मंडल को भेज दी गयी है। कृपया हमारा सोमवारीय अंक (15 जनवरी 2018 ) अवश्य देखें। आपकी रचना इस अंक में (चुने जाने पर ) प्रकाशित की जाएगी।

    हम आशावान हैं कि आपका सहयोग भविष्य में भी ज़ारी रहेगा।

    सधन्यवाद।

    टीम पाँच लिंकों का आनंद

    जवाब देंहटाएं
  2. "अलाव" बिषय आधारित रचनाओं का प्रकाशन सोमवार 15 जनवरी 2018 को किया जा रहा है जिसमें आपकी रचना भी सम्मिलित है . आपकी सक्रिय भागीदारी के लिये हम शुक्रगुज़ार हैं. साथ बनाये रखिये.
    कृपया चर्चा हेतु ब्लॉग "पाँच लिंकों का आनन्द" ( http://halchalwith5links.blogspot.in) अवश्य पर आइयेगा. आप सादर आमंत्रित हैं. सधन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं
  3. सुप्रभात
    बहुत खूबसूरत लिखा आपने, परिस्थितियां चाहे अनुकूल ना हो ,पर मानव मन की जुगाड़ू प्रवृत्ति खंडहरों में भी उत्सव सा आंनद भर देगी , सुंदर लयबद्ध रचना.. वास्तविकता को छुती हुई ... बहुत अच्छी लगी..!

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छी रचना वैभवी जी।

    जवाब देंहटाएं