पुराने खण्डहर में
तिरपाल डाल कर
बैठे हुए लोग
करते थे कुछ बतकही
कुछ अनकही
संझा घिर आई
पूस का महीना
काटनी थी रात लम्बी
उठे कुछ लोग......
लाए ढूंढकर....
मोटी पतली लकड़ियां
जलाई आग....
इस पुराने खण्डहर में
मिल गई कुछ
टूटी खाट....
लाकर डाल दिया
आग में और
बना दिया धूनी को
धधकता अलाव...
रात थी पूस की
पर लग रही थी
बैसाख सी....
पड़ाव किया था...
गुजारने के लिए रात
और करनी थी प्रतीक्षा
सुबह की...
हमने बुझने नही दिया अलाव
काट ली रात
हंसते गाते....