नग्न काया परवत की बज रहा संगीत पतझड़ का कुछ विरहगान गुनगुनाती पहाड़ी लड़कियाँ गीत में...है समाया हुआ दुःख पहाड़ का सिकुड़कर लाज से सिसकते सिकुड़ी सी नदी जंगल तोड़ रहे मौन...पहाड़ का और नदी के छल-छलाने की आवाज भी भंग करती है मौन
मद भरी मादक सुगन्ध से आम्र मंजरी की पथ-पथ में.... कूक कूक कर इतराती फिरे बावरी कोयलिया.... है जाती जहाँ तक नजर लगे मनोहारी सृष्टि सकल छा गया उल्हास....चारों दिशाओं में री सखि देखो बसन्त आ गया
कह दी बात खुल के बात अपने दिल की तो हो गया बवाल..... तलाशते हो यहां - वहां रोज बाते चटपटी मुहब्बत की आँखें ने...जो कही.. तो हुआ वही.....जिसका था.....अंदेशा काफी भारी.....हुआ बवाल..... लिहाज कर गए बड़ों का झुका कर....आँख तो हो गया...वही घिसा-पिटा सा बवाल..... किया सवाल डालकर आँखें आखों में कहलाई मैं बवाली.....सोचा हमने कि होगा कहा धोखे से बावली की जगह बवाली....पूछ लिया तो हो गया....वही वो मुंआ बवाल